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विविध उपन्यास >> दो भद्र पुरुष

दो भद्र पुरुष

गुरुदत्त

प्रकाशक : हिन्दी साहित्य सदन प्रकाशित वर्ष : 1990
पृष्ठ :143
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 5286
आईएसबीएन :000

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एक लखपति था और दूसरा मजदूर। एक ठेकेदार था, दूसरा स्कूल-मास्टर। एक नई दिल्ली में बारहखम्भा रोड पर दुमंजिली कोठी पर रहता था

Do Badra Purush

प्रथम परिच्छेद
1

एक लखपति था और दूसरा मजदूर। एक ठेकेदार था, दूसरा स्कूल-मास्टर। एक नई दिल्ली में बारहखम्भा रोड पर दुमंजिली कोठी पर रहता था, दूसरा बाजार सीताराम के कूचा पातीराम की अँधेरी गली के अँधेरे मकान में। एक मोटर में बैठकर काम पर जाता था तो दूसरा बाइसिकल पर। एक उत्तम विलायती वस्त्र धारण करता था दूसरा खद्दर का पायजामा, कुरता, जाकेट, और टोपी।

फिर भी दोनों में परस्पर सम्बन्ध था। एक बहनोई था दूसरा साला। यह चमत्कार इस कारण नहीं था कि स्कूल-मास्टर की बहिन सुन्दर थी और वह लक्षाधिपति उस पर मुग्ध हो गया था, प्रत्युत दोनों में यह सम्बन्ध इस कारण बना था कि दोनों एक ही बिरादरी के व्यक्ति थे।
सन् 1905 में लाहौर के एक मोहल्ले में लाला गिरधारीलाल खन्ना का लड़का गजराज जब पन्द्रह वर्ष का हुआ तो उसके पड़ोस में रहने वाले सोमनाथ कपूर की स्त्री सरस्वती गिरधारीलाल के घर आई और उसकी स्त्री से कहने लगी, ‘‘बहिन ! लक्ष्मी के सिर पर हाथ रख दो तो हमारा बोझा हल्का हो जाय।’’

गजराज की माँ परमेश्वरी ने लक्ष्मी को देखा हुआ था। लड़की गोरी और सुन्दर थी। साथ ही कभी मिल जाती तो हाथ जोड़ ‘मौसी राम-राम’ भी कह देती थी। बात उसके मन लगी। केवल एक शंका थी कि गजराज के पिता कहीं कुछ दहेज न माँग लें। वह जानती थी कि किन्हीं परिवारों के लड़के वाले दहेज माँगने लगे हैं। वह स्वयं तो इस विषय में उदार विचारों वाली थी, परन्तु अपने पति के विषय में कुछ नहीं कह सकती थी।
अतएव उसने कहा, ‘‘बहिन ! लक्ष्मी तो अपनी ही लड़की है। जात-बिरादरी भी ठीक है। फिर भी गजराज के पिता से पूछ लूँ। तभी बात पक्की होगी।’’
‘‘ठीक है, पूछ लेना। बहिन, तुम कह दोगी तो लड़की राज चढ़ जायगी और हम जीवन-भर तुम्हारे कृतज्ञ रहेंगे।’’
उसी रात लाला गिरधारीलाल की पत्नी ने डरते-डरते अपने पति से इस विषय में बात की—‘‘आज लक्ष्मी की माँ सरस्वती आई थी और गजराज से उसके रिश्ते के लिए कह रही थी।’’

‘‘तो तुमने स्वीकार कर लिया है ?’’
‘‘भला आपसे पूछे बिना मैं कैसे मान सकती थी !’’
‘‘क्यों, क्या तुम गजराज की माँ नहीं हो ?’’
‘‘लक्ष्मी के पिता को पचपन रुपये मासिक वेतन मिलता है।’’
‘‘और मैं सोने-चाँदी का व्यापार करता हूँ, यही कहना चाहती हो न ?’’
परमेश्वरी का मुख इससे लाल हो गया। उसने कहा, ‘‘मैं तो आपके विषय में विचार कर रही हूँ। हम औरतों को तो केवल खाने-पहनने भर को चाहिए। बात तो आदमियों की है। उन्हें हर स्थान पर आना-जाना होता है।’’
‘‘देखो भाग्यवान ! लड़की हमारे घर में आएगी तो धन-दौलत उसकी हो जाएगी और वह भी तब उतनी ही धनवान हो जाएगी, जितनी तुम हो। तब वह तुम्हारे बराबर हो जाएगी।’’
‘‘मैं तो यह कह रही थी कि लक्ष्मी का पिता आभूषणादि कुछ अधिक नहीं दे सकेगा।’’
‘‘तो क्या तुम्हारे पास उनकी कुछ कमी है ?’’

परमेश्वरी मन में तो प्रसन्न हो रही थी। वह ऐसा काल था जब समधियों की जाति देखी जाती थी, उसका धन नहीं। लड़की वाले तो कभी देखते भी थे कि उनकी लड़की को खाने-पहिनने को क्या मिलेगा, परन्तु लड़के वाले यह विचार करते थे कि घर में ‘लक्ष्मी’ आ रही है। वह किसी रूप में भी आये, सौभाग्य लेकर ही आएगी। परमेश्वरी यह समझती थी।
अब उसके मन के संशय का निवारण हो गया। उसने कहा, ‘‘मैं बात तो कल पक्की कर दूँगी, किन्तु विवाह कब करना होगा ?’’
‘‘हाँ, अब तुमने मतलब की बात कही है। गजराज पन्द्रह वर्ष का हो चुका है। मेरा विवाह तो आठ वर्ष की आयु में ही हो गया था।’’
परमेश्वरी हँस पड़ी। उसको अपने बचपन के उस काल का स्मरण हो आया, जब उसका विवाह हुआ था और वह इस घर में आई थी तो उन दिनों अपने पति से वह इस प्रकार लड़ पड़ती थी जैसे वह उसका कोई भाई हो। उसको हँसते देख गिरधारीलाल ने पूछा, ‘‘क्यों, हँस रही हो ?’’
‘‘वे भी क्या दिन थे ! कितने मधुर, विषय-वासना का ज्ञान नहीं, फिर भी आनन्ददायक। आपकी माताजी हम दोनों में झगड़ा कराकर स्वयं आनन्द लिया करती थीं।

‘‘एक दिन जब आप मेरी थाली में से मिठाई उठाकर खा गये और मैं आपको भूखा-नंगा कहने लगी तो आप मुझे पीटने के लिए तैयार हो गये थे। तब माताजी ने आपको रोककर कहा था, ‘‘पत्नी को मारने वाला तो पापी कहलाता है।’ यह सुनकर आपका हाथ नीचा हो गया था। मुझे भी माताजी ने कहा था, ‘पति को कहीं भूखा-नंगा कहते हैं ? क्षमा माँगो उससे।’’
‘‘मैंने आपके पाँव को हाथ लगाकर कहा था, ‘‘क्षमा कर दो’, तो आप बोले, ‘नहीं करता।’
‘‘माँ ने आपको डाँटा था और आप रूठकर खाना छोड़कर उठ गये थे।
‘‘उसी सायं:काल आप मेरे लिए मिठाई का एक दोना लेकर आये थे और आपने माँ को कहा था, ‘माँ, उस एक गुलाबजामुन के बदले में बहू को पाँच दे दो, जिससे मैं उस पाप से मुक्त हो जाऊँ।’
‘‘माँ तो हँसकर दोहरी हो गई थीं।’’

इस प्रकार गजराज का लक्ष्मी से विवाह हो गया। यद्यपि विवाह पर कुछ माँगा नहीं गया था, फिर भी सोमनाथ ने अपने समस्त जीवन की कमाई इस विवाह पर लगा दी। लक्ष्मी तथा गजराज के लिए दो-दो जोड़ी मूल्यवान वस्त्र तथा आभूषण दिये गये, और बारातियों का वह आदर-सम्मान किया कि वे कहने लगे, ‘‘सोमनाथ तो भीतर से काफी मजबूत निकला। काफी खिलाया-पिलाया है। साधारण स्थिति का व्यक्ति तो इस प्रकार नहीं कर पाता।’’
तथ्य यही था कि सोमनाथ धनी व्यक्ति नहीं था। म्युनिसिपल कमेटी में वह चेचक के टीके लगाने वाले डॉक्टर के कम्पाउंडर के पद पर नियुक्त था। वेतन तो उसको पैंतीस रुपये मासिक ही मिलता था, परन्तु वह सायं:काल तीन-चार लड़कों को पढ़ाकर बीस रुपये, तक वेतन के अतिरिक्त, अर्जित कर लेता था। इससे जब कभी कोई उसकी पत्नी से उसके वेतन के विषय में प्रश्न करता तो वह पचपन रुपये बताती थी। इतने में निर्वाह होने के साथ-साथ दस-बारह रुपये कभी बच भी जाया करते थे, जो जमा होते रहते थे और यही जमा पूँजी उसने लक्ष्मी के विवाह में व्यय की थी।
विवाह के अनन्तर व्यय का हिसाब लगाया गया तो पता चला कि जीवन की सब पूँजी व्यय करके भी दो सौ रुपया ऋण हो गया है। अभी हलवाई तथा चीनी-बेसन इत्यादि का रुपया देना अवशिष्ट था।

सोमनाथ ने अपनी पत्नी से पूछा, ‘‘कुछ अपने आभूषण इत्यादि हैं क्या ?’’
‘‘अब तो यह कड़े ही रह गए हैं और वह भी पीतल के। विवाह के दिन पहनने के लिए दस आने में ‘डिब्बी बाज़ार’ से खरीदे थे।’’
‘‘कल हलवाई आदि माँगने के लिए आयेंगे तो क्या कहूँगा ?’’
कह देना, अगले मास के आरम्भ में वेतन मिलने पर चुका दिया जायगा।’’
‘‘वे मानेंगे नहीं।’’
‘‘कह देखिए, मान जाएँगे।’’
उस युग में वस्तुएँ सस्ती थीं, आय कम थी, फिर भी सभी में सन्तोष की भावना विद्यमान थी। हलवाई सोमनाथ का आग्रह मान गये। अन्नादि वाले भी राजी हो गये। कन्या के विवाह में सहायता पुण्य-कार्य माना जाता था। सोमनाथ को यह ऋण उतारने में छः मास लग गये।
लक्ष्मी के भाई की आयु उस समय आठ वर्ष की थी। लक्ष्मी के विवाह पर धड़ाधड़ रुपया व्यय होने का उसे स्मरण था। परन्तु यह भावना कि विवाह पर बहिन को बहुत-कुछ देना चाहिए, उसके मन में भी विद्यमान थी। यह जानकर कि उसके पिता ने सबकुछ लक्ष्मी के विवाह पर व्यय कर दिया है, उसको मन-ही-मन सन्तोष और प्रसन्नता हुई थी।

समय के हेर-फेर में गिरधारीलाल, परमेश्वरी, सोमनाथ और सरस्वती परलोक सिधार गये। गजराज ने अपने पूर्वजों से चले आ रहे सर्राफे के कार्य को छोड़ ठेकेदारी को अपना लिया था। वह सन् 1919 में लाहौर से दिल्ली चला गया और वहाँ जाकर नई दिल्ली के निर्माणकर्ता ठेकेदारों में से एक हो गया। यों तो अपने पूर्वजों का कार्य समेटते समय उसके पास तीन लाख की सम्पत्ति थी, परन्तु ठेकेदारी और वह भी नई दिल्ली में, पर्याप्त लाभ दे रही थी।

सोमनाथ का लड़का चरणदास दसवीं कक्षा उत्तीण कर जे.ए.वी. में प्रविष्ट हो गया और उसे उत्तीर्ण करने के उपरान्त एक स्कूल में अध्यापक का कार्य करने लगा। तीस रुपया मासिक वेतन पर एक प्राइवेट स्कूल में उसको नौकरी मिल गई।

पिता का देहान्त हो जाने पर लक्ष्मी ने अपने भाई चरणदास के विवाह का प्रबन्ध कर दिया। लाट साहब के दफ्तर के एक चपरासी रामस्वरूप की लड़की मोहिनी से 1913 में उसका विवाह हो गया।

चरणदास ने देखा कि जो कुछ उसके पिता ने उसकी बहिन के विवाह पर दिया था, उसका पासंग-भर भी उसको अपने विवाह पर नहीं मिला। फिर भी वह खिन्न अथवा असन्तुष्ट नहीं था। उसकी पत्नी सुन्दर और सुशील थी।

लक्ष्मी ने भाई की दीनावस्था देखी तो वह उसको दिल्ली ले गई और नगर के एक सस्ते-से मकान में ठहराकर उसको पचास रुपये मासिक पर एक स्कूल में नौकरी दिलवा दी।

:2:


गजराज की दो सन्तान थीं—एक लड़का और एक लड़की। लड़के का नाम कस्तूरीलाल और लड़की का नाम यमुना था। चरणदास की सुमित्रा और सुभद्रा नाम की दो लड़कियाँ ही थीं।

लक्ष्मी भाई-भावज से मिलने जाती रहती थी। जब भी वह जाती, बच्चों के लिए मिठाई इत्यादि भी ले जाती। इससे बच्चे बूआ को भली प्रकार जानते थे। चरणदास बहिन के घर की वस्तुओं को न तो स्वयं छूता और न ही अपनी पत्नी को छूने देता था। बहिन के घर की किसी भी वस्तु का प्रयोग वे नहीं करते थे। ऐसा करना वे धर्म-विहित नहीं मानते थे।

चरणदास को अपनी बहिन के विवाह के समय की सभी बातें स्मरण थीं और वह समझता था कि पिताजी ने बहिन का धनी परिवार में विवाह कर अच्छा ही किया था। लक्ष्मी की अवस्था को देख वह अपनी निर्धनता को भूल जाया करता था।
एक दिन लक्ष्मी अपने भाई के घर आई तो अपने लड़के कस्तूरी को साथ लेती आई। उस दिन कस्तूरी के स्कूल की छुट्टी थी। सुमित्रा स्कूल से आई तो बूआ को वहाँ बैठे देख, प्रसन्न हो, नमस्ते कह, उसके समीप ही बैठ गई।

कमरे में खिड़कियाँ थीं, परन्तु जिस गली की ओर वे खुलती थीं, उसके चार-मंजिले मकानों की परछाईं के कारण, उस कमरे में प्रकाश बहुत कम आता था।

कस्तूरी अपनी माँ के पास बैठा हुआ मामी की दी हुई मठरी खा रहा था। सुमित्रा ने कस्तूरी को पहली बार देखा था, इस कारण उसको बूआ के पास बैठे देख, प्रश्न-भरी दृष्टि से उसकी ओर देखने लगी। मोहिनी इस दृष्टि का अर्थ समझ गई और उसने कस्तूरी का परिचय कराते हुए कहा, ‘‘सुमित्रा ! यह तुम्हारी बूआजी का लड़का कस्तूरीलाल है।’’
कस्तूरीलाल को अपने मामा का घर देखकर बड़ी निराशा हुई थी। एक छोटा-सा मकान था, जिसकी पहली मंजिल पर एक अन्य परिवार रहता था। ये बीच की मंजिल के एक कमरे में बैठे थे। मकान में बिजली तो थी, परन्तु आज किसी कारण बन्द होने से कमरे में अँधेरा था।

मोहिनी ने भूमि पर चटाई बिछाकर अपनी ननद और उसके लड़के को बैठाया था। कस्तूरीलाल ने खड़े-खड़े ही अपने चारों ओर देख उस स्थान को नापसन्द कर दिया। लक्ष्मी ने कहा, ‘‘बैठो कस्तूरी !’’
मोहिनी ने उसका भाव समझकर कहा, ‘‘बैठ जाओ भैया ! यहाँ तो यह चटाई ही है।’’
‘‘मामी ! बहुत अँधेरा है यहाँ तो ?’’
‘‘हाँ, आज बिजली बन्द होने के कारण और भी अन्धकार हो गया है, अन्यथा कुछ तो दिखाई देता ही।’’
कस्तूरी इस ‘कुछ’ का अर्थ नहीं समझ सका। वह बैठ गया। मोहिनी ने चौके में जाकर बरतन में से एक मठरी निकाली और थाली में रखकर लड़के के सामने रख दी।
कस्तूरीलाल इस समय बारह वर्ष का हो गया था और उसको अपने माता-पिता के साथ बारहखम्भा रोड वाली कोठी पर रहते हुए तीन वर्ष हो चुके थे। उसका लाहौर वाला मकान भी पर्याप्त साफ-सुथरा और हवादार था, परन्तु नई दिल्ली की कोठी तो बहुत ही शानदार थी। उसकी तुलना में चरणदास का मकान तो अत्यन्त गन्दा और अन्धकारमय प्रतीत होता था। कस्तूरीलाल के बाल-मन पर इसका गहरा प्रभाव पड़ा।

माँ ने संकेत किया तो वह आम के छार के साथ मठरी खाने लगा। मोहिनी ने ननद से पूछा, ‘‘बहिनजी ! आपके लिए भी लाऊँ ?’’
‘‘नहीं, रहने दो भाभी !’’
इस समय सुमित्रा आ गई और मोहिनी ने उसके साथ कस्तूरी का परिचय करा दिया। सुमित्रा अभी उसको अर्ध-प्रकाश में देख ही रही थी कि बिजली आ गई और एकाएक कमरे में प्रकाश हो गया।
मोहिनी ने कमरा बहुत साफ-सुथरा कर रखा था। दीवारों पर सफेदी और किवाड़ों पर वार्निश से कुछ तो सुघड़ों का घर प्रतीत होता था।
प्रकाश होने पर कस्तूरीलाल ने अपनी माँ की दूसरी ओर बैठी सुमित्रा को भली प्रकार देखा। उसको कुछ ऐसा आभास हुआ कि इस साधारण वातावरण में वही एक चाँद-सी उज्जवल लड़की है।
मोहिनी ने कस्तूरी को ध्यान से सुमित्रा की ओर देखते हुए पाया तो बोली, ‘‘यह तुम्हारी बहिन सुमित्रा है। देख लो, इसके विवाह में तुम्हें भी कुछ देना ही पड़ेगा।’’
इस समय लक्ष्मी ने अपने थैले में से मिठाई की एक छोटी-सी टोकरी निकाली और मोहिनी के सम्मुख रखते हुए बोली, ‘‘छोटी कहाँ है आज ?’’
‘‘उसको आज कुछ ज्वर-सा हो गया है, ऊपर लेटी हुई है।’’
‘‘अच्छा, तब तो चलो, ऊपर ही चलें।’’
सभी ऊपर चले गए। सीढ़ियाँ बहुत तंग थीं, परन्तु मोहिनी ने उनको बहुत साफ कर रखा था और दीवारों पर वार्निश की हुई थी। सीढ़ियों में भी अँधेरा था, किन्तु बिजली लगा होने के कारण जाने में किसी प्रकार की असुविधा नहीं हुई।

सभी ने सुभद्रा के माथे पर हाथ रखकर देखा। उसका माथा तप रहा था। चिन्ता प्रकट करते हुए उसने कहा, ‘‘किसी डॉक्टर को दिखाया है ?’’

इसके पिता होमियोपौथिक दवा रखते हैं। वही दे रहे हैं।’’
‘‘यह तो ठीक नहीं। किसी समझदार डॉक्टर को दिखाना चाहिए।’’
‘‘मैं कह दूँगी कि बहिनजी किसी समझदार डॉक्टर से इसकी चिकित्सा कराने के लिए कह गई हैं।’’
‘‘हाँ, मैं कल आऊँगी। कहो तो डॉक्टर को साथ लेती आऊँ ?’’
‘‘यह भी कह दूँगी।’’
तुम स्वयं कुछ क्यों नहीं कहती ? क्या यह तुम्हारी लड़की नहीं है ?’’
‘‘है तो। आपकी भी तो लड़की है। परन्तु इस घर में चलती सुमित्रा के पिता की ही है।’’
लक्ष्मी ने फिर कुछ नहीं कहा।
अगले दिन वह स्वयं ही डॉक्टर को लेकर आ गई। स्कूल प्रातःकाल के थे। चरणदास स्कूल की ड्यूटी देकर तब तक घर पहुँच गया था। सुमित्रा भी आ चुकी थी।
पिछले दिन घर पहुँचकर लक्ष्मी ने अपने पति को चरणदास की छोटी लड़की की अस्वस्थता तथा चिकित्सा की व्यवस्था की बात बता दी थी। कस्तूरी लाल ने अपनी माँ का समर्थन करते हुए कहा, ‘‘हाँ, पिताजी ! उसका शरीर तो इस प्रकार तप रहा था, मानो खौलता हुआ पानी हो।’’

गजराज बोला, ‘‘कल जाकर उसकी खबर ले आना।’’
‘‘मैं सोचती हूँ कि आप यदि डॉक्टर आहूजा को टेलीफोन कर दें तो अच्छा होगा। वह मेरे साथ ही चला चलेगा और उसकी चिकित्सा की व्यवस्था कर आएगा।’’
आजकल किसकी चिकित्सा चल रही है ?’’
‘‘आपको बताया तो था कि चरणदास थोड़ी-बहुत होमियोपैथी जानता है। वह अपने निदान के अनुसार उसे औषध दे रहा है।’’
‘‘तब तो ठीक है।’’ इस प्रकार गजराज ने बात टाल दी।
जब लक्ष्मी रात को सोने लगी तो कस्तूरी ने माँ से पूछा, ‘‘माँ, कल सुभद्रा को देखने के लिए जाओगी ?’’
‘‘हाँ, जाऊँगी। क्यों ?’’
‘‘मुझको भी साथ ले चलना।’’
‘‘तुम क्या करोगे वहाँ जाकर ?’’

कस्तूरी इसका उत्तर नहीं जानता था। वह कुछ विचार में पड़ गया। उसकी माँ ने ही पुनः कहा, ‘‘मैं समझती हूँ कि डॉक्टर को साथ लेकर जाऊँ। पता नहीं डॉक्टर कब खाली हो। तुम्हें तो स्कूल भी जाना होगा ?’’
कस्तूरी सेंट एन्थोनी स्कूल में सीनियर कैम्ब्रिज में पढ़ता था। उन दिनों उसका स्कूल प्रातः सात बजे से ग्यारह बजे तक का था। इस कारण उसने कह दिया, ‘‘अच्छा, यदि मैं स्कूल से समय से लौट आया तो चलूँगा।’’
लक्ष्मी कस्तूरी के मन में अपनी बहिन के प्रति इस सहानुभूति को देखकर प्रसन्न थी। डॉक्टर आहूजा से फोन पर समय निश्चित किया गया तो उसने बताया कि वह बारह बजे तक चलेगा। लक्ष्मी पौने बारह बजे अपनी मोटर लेकर घर से चलने लगी तो कस्तूरी भी साथ चलने के लिए तैयार हो गया। माँ-पुत्र दोनों डॉक्टर को लेकर चरणदास के घर जा पहुँचे।

डॉक्टर जब रोगी के कमरे में पहुँचा तो चरणदास वहाँ बैठा हुआ अपनी होमियोपैथी की पुस्तक में सुभद्रा के रोग के लक्षण देखकर निदान कर रहा था। आज उसका ज्वर उतर गया था। लड़की सचेत थी, किन्तु दुर्बल हो गई थी।
डॉक्टर को आया देख, चरणदास ने पुस्तक एक ओर रखकर, हाथ जोड़ नमस्कार की और खड़े हो डॉक्टर के लिए रोगी के सम्मुख कुर्सी सरका दी।

डॉक्टर ने बैठकर रोगी को देखना आरम्भ किया। पन्द्रह मिनट की देखभाल के अनन्तर उसने कहा, ‘‘ज्वर तो अब नहीं है। फिर भी फेफड़े में थोड़ी सूजन है, पेट में कब्ज है। सम्भवतया ज्वर फिर हो जाए।’’
इसके बाद उसने अपने बैग में से एक पैड निकाला और उस नुस्खा लिखने लगा। उसने पूछा, ‘‘क्या नाम है लड़की का ?’’
‘‘सुभद्रा।’’
‘‘आयु ?’’
‘‘चार वर्ष।’’
उसने नुसखा लिख दिया, जिसमें मिक्सचर और कुछ गोलियाँ थीं। निदान में उसने ‘माइल्ड अटैक ऑफ निमोनिया’ लिखा।
इसके पश्चात् डॉक्टर पूछने लगा, ‘‘अब तक किसकी औषधि दे रहे थे ?’’
चरणदास मुस्कराया और बोला, ‘‘अब जानकर क्या करेंगे ? जिसकी भी औषधि थी, उससे लाभ किया प्रतीत होता है।’’
लक्ष्मी को कहना पड़ा, ‘‘अब तक इसे होमियोपैथिक औषधि दी जा रही थी।’’
‘‘ओह ! ‘क्वैकरी’ ?’’
चरणदास हँस पड़ा। उसने डॉक्टर से कहा, ‘‘डॉक्टर साहब, क्या फीस है आपकी ?’’
इतना कहते हुए उसने अपनी जेब में से पाँच रुपये का नोट निकाल-कर डॉक्टर की ओर बढ़ाया। डॉक्टर कहने लगा, ‘‘रहने दीजिए। मिस्टर खन्ना के साथ तो हमारा हिसाब चलता है, फीस आ जायगी।’’

इससे चरणदास विस्मय में उसका मुख देखता रह गया। वह समझ गया कि इसकी फीस पाँच से अधिक होगी। इस कारण उसने वह नोट अपनी जेब में वापस डालकर कह दिया, ‘‘बहिन ! हिसाब होगा बता देना, मैं दे दूँगा।’’


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